सितम्बर के महीने में मैंने एक स्टेटस लिखा था ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया में भेजी गयी। फिल्मों के विषय पर। सूची में गीतू मोहनदास की लायर्स डायस,शाहिद,मर्दानी,क्वीन,मैरीकॉम,यंगिस्तान और टू स्टेट्स जैसी फ़िल्में थीं।हालांकि मैंने उस स्टेटस को हटा दिया था क्योंकि फिल्म के निर्देशक अपनी फ्रेंडलिस्ट में हैं।
ख़ैर आज कई लोगों को इस पर बात करते हुए देखा कि यंगिस्तान फिल्म के ऑस्कर नॉमिनेशन के लिए भेजा गया है।
कई लोग पूर्ण जानकारी के आभाव में भ्रमित हैं। दरअसल ऑस्कर में 'बेस्ट फ़ॉरेन लैंग्वेज फिल्म केटेगरी के लिए भारत की तरफ से अधिकारिक रूप से जिस फिल्म को चुना गया है वो गीतू मोहनदास की निर्देशित फिल्म 'लायर्स डाइस' है।जिसमे मुख्य भूमिका में नवजुद्दीन और गीतांजलि थापा। हैं। यंगिस्तान को इंडिपेंडेंट रूप से भेजा गया है।
ख़ैर अब बात करते हैं ऑस्कर अवार्ड के लिए भारतीय फिल्मों की स्थिति पर। भारत में प्रत्येक वर्ष तकरीबन 35 भाषाओँ में 1500 फ़िल्में बनती हैं। इस वर्ष 37 भाषाओँ में कुल 1778 फ़िल्में सर्टिफिकेशन के लिए आयीं।जो कि पूरी दुनिया में बनने वाली कुल फिल्मों का आधा से थोडा अधिक हैै..! उसके बावजूद हमारी कितनी फ़िल्में इस लायक होती हैं जिन्हें हम ऑस्कर या अन्य विश्व स्तरीय अवार्ड के लिए भेज सकें.!हम चाहे जितना गर्व कर लें लेकिन अब तक जितनी भी 'भारतीय' फिल्मों ने ऑस्कर जीता है भले ही उनकी शूटिंग देश की धरती पर हुई हो लेकिन उनका कांसेप्ट किसी विदेशी का था...उसके निर्माता,निर्देशक विदेशी थे।चाहे वो स्लमडॉग मिलियनेयर हो लाइफ ऑफ़ पाई हो या गाँधी हो। अब तक सिर्फ पांच भारतीयों को ऑस्कर मिला है।
ऐसा भी नहीं है कि अपने यहाँ अच्छी फिल्में नहीं बनी हैं। बनी हैं लेकिन पता नहीं क्यों अच्छी फिल्मों को कम ही भेजा जाता है।1970,75,76 में तो किसी फिल्म को भेजा ही नहीं गया था। जब कि इस वर्ष फिल्मों ने राष्ट्रीय अवार्ड भी जीता था।सन 98 में श्याम बेनेगल की बेहतरीन फिल्म 'समर' को न भेज कर जीन्स जैसी फिल्म को सिर्फ ऐश्वर्या के लिए भेजा गया।2012 में बर्फी को भेजा गया था जबकि इस फिल्म की। कहानी के। साथ कई सीन विदेशी क्लासिक से इंस्पायर्ड थे या कहें हुबहू कॉपी किया गया था। बर्फी की वजह से उसी वर्ष आई फ़िल्में जैसे 'पान सिंह तोमर','कहानी' को नहीं भेजा गया।भारत की तरफ से भेजी जाने वाली अधिकतर फिल्मे बॉलीवुड से होती हैं। जबकि मलयालम और बंगाली भाषा में सबसे बेहतरीन फिल्मों का निर्माण होता है।
हालांकि जिस देश में राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री में अगर आपका बाप नहीं है तो आपको कोई पूछने वाला नहीं होता वहां अच्छी फ़िल्में बनना और ऑस्कर के लिए उम्मीद करना बेमानी है। हमें छः और आठ पैक वाले 30 करोड़ के हीरो,एक करोड़ के मेकअप से सजी पचास लाख की हेरोइन वाली फ़िल्में ज्यादा पसंद आती हैं। जहाँ एक लाइन की स्टोरी होती है। चार लाइन के आइटम सॉंग।उनके शो हाउसफुल चलते हैं। 200-400 करोड़ की कमाई भी हो जाती है। वहीँ कम बजट की अच्छी कहानी वाली फिल्म सिनेमाघर तक नहीं पहुँच पाती।और अगर किसी तरह पहुँचती भी हैं तो दर्शक ढूंढ़े नहीं मिलते।
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