पंचायत चुनावों की जातिगत राजनीति और उसके ख़तरे

पम्फ्लेट्स पर जाति का विशेष तौर पर उल्लेख

समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है। देश में तरक्की और विकास की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। लेकिन आज भी जाति जैसी गंभीर समस्या का कोई हल नज़र नहीं आ रहा। हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में इसका असर साफ़ देखने को मिला। जहाँ उम्मीदवार प्रचार करने के लिए पोस्टरों और बैनरों पर विशेष तौर पर अपनी जाति का उल्लेख करके अपनी बिरादरी के वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश हुए नज़र आये।
पंचायत चुनावों में धनबल का प्रयोग तो होता ही है। लेकिन जाति को भी चुनाव जीतने का महत्वपूर्ण हथियार माना जाता है। वोटरों को साड़ी से लेकर शराब का वितरण धड़ल्ले से किया जाता है। एक समय हमारे पारंपरिक समाज में सिर्फ उच्च जाति के लोग ही नाम के आगे जाति लिखकर शक्ति,सम्मान हासिल करने की कोशिश करते थे। लेकिन अब तथाकथित नीची जाति के लोग भी नाम के आगे जाति लिखकर अपने उन्हीं की राह पर चल पड़े हैं। खास बात तो यह है कि जिन उम्मीदवारों के अधिकारिक नाम के आगे उनकी जाति नहीं लिखी होती है वे भी अपनी जाति का ज़िक्र ख़ास तौर पर पोस्टर और पम्प्लेट्स पर करते हैं। कुछ लोग नाम के आगे सम्मानजनक टाइटल प्रयोग करते हैं लेकिन चुनावों में वो भी जाति के वास्तविक नाम को भुनाने की कोशिश करते हैं। जैसे निर्मल की जगह ‘धोबी’ सरोज की जगह ‘पासी’ गौतम की जगह ‘चमार’। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्हें इन जातिसूचक नामों से संबोधित करना कानूनन जुर्म है। तो फिर ऐसा क्या है कि ये लोग जाति को ज़ाहिर करके वोट हथियाने और चुनाव जीतने की लालसा रखते हैं? इसके पीछे की असल वजह को जानने की ज़रूरत है। दरअसल ये निम्न तबका एक समय तक राजनीतिक शक्ति से वंचित था।  संविधान के अनुच्छेद 330 में चुनाव में अनुसूचित जाति को आरक्षण का प्रावधान है। जिस क्षेत्र की सीट आरक्षित हो जाती है वहां सिर्फ आरक्षित श्रेणी का उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकता है। लेकिन उम्मीदवारों के सामने समस्या तब खड़ी हो जाती है जब उसी श्रेणी के कई उम्मेदवार उसके सामने आ जाते हैं। ऐसे में जिस जाति का जनाधार ज्यादा होता है उस जाति के मतदाता निर्णायक भूमिका में आ जाते हैं। फिर सभी उम्मेदवार अपनी-अपनी जाति के लोगों को लुभाने की भरपूर कोशिश करते हैं। अपने आपको उस जाति का बताकर प्रचारित करते हैं। गाँव के लोगों के मन में भी यह धारणा बन गयी है कि उनका भला केवल उन्ही की जाति का व्यक्ति ही कर सकता है। फिर बाकी विकास के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे राशन,कॉलोनी,नाली,खडंजा,शौचालय जाति के भार के नीचे दब जाते हैं। ये सब पंचायत चुनाव में ही नहीं होता है। विधानसभा चुनावों में भी लगभग सारी पार्टियाँ इसी फ़ॉर्मूले को अपनाती हैं। हालांकि लोकसभा चुनावों में जाति उतनी हावी नहीं हो पाती लेकिन निर्वाचन क्षेत्र में जिस जाति की बहुलता होती है उसी जाति के उम्मीदवार को टिकेट दिया जाता है। फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस उम्मीदवार का चरित्र कैसा है। सोच कैसी है। यहाँ तक कि कई क्षेत्रीय दलों का उद्भव ही जाति की बुनियाद पर हुआ है। यह राजनीतिक व्यवस्था समाज और देश के विकास के लिए बहुत ही घातक है। आज समाज में शिक्षा के प्रसार और आधुनिकता के दौर में जाति की प्रासंगिकता समाप्त हो जानी चाहिए थी। लेकिन जाति नाम की बीमारी महामारी बनकर नागरिकों और समाज के विकास को अवरुद्ध करने में लगी हुई है। हालांकि शहरीकरण और अधुनिकिकरण से गाँव में काफी बदलाव आया है। लेकिन चुनावों में पनप रही ऐसी व्यवस्था से जाति का पतन होने के बजाय यह एक विकराल समस्या का रूप लेती जा रही है। इस जातिव्यवस्था ने पूरी राजनीतिक चेतना को ध्वस्त कर दिया है। ऐसी प्रवृत्ति से सामाजिक समरसता में कमी तो आती ही है। समाज में गुटबाजी जैसी समस्याएं भी जन्म ले लेती हैं। आपसी भाईचारा ख़त्म होता है। जातिगत राजनीति से तमाम अच्छी राजनीतिक अभिवृत्तियां जैसे निष्ठा,विश्वास और प्रतिबद्धता को बढ़ावा ही नहीं मिल पाता। चुनाव जीतने वालों व्यक्ति का सामाजिक उत्तरदायित्व सीमित हो जाता है।

इस समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए एक बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत है। चुनाव आयोग इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है। आयोग को चाहिए कि वो चुनाव में जाति के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगाये। लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की भी एक सीमा है। यहाँ तो हर एक नियम कानून को ठेंगा दिया जाता है। ऐसे में वास्तविक जमीनी बदलाव तभी आ पायेगा जब लोग जाति के मोह से बाहर निकलेंगे। जब उन्हें लगेगा कि उनका भला जाति नहीं बल्कि सर्व समाज का भला करने वाली सोच से होगा। और ये सोच तभी मूर्त रूप ग्रहण करेगी जब युवा इससे लड़ने के लिए एकजुट होकर सामने आयेगा। लक्ष्य थोड़ा मुश्किल ज़रूर लगता है लेकिन उम्मीद है कि एकदिन जाति विहीन समतामूलक समाज की स्थापना ज़रूर होगी।

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