यहां से भी विदा
दो दिन बाद इस जगह को भी छोड़ देना है। सोच रहा था अभी सारा सामान बांध लूं, ताकि आखिरी मौके पर परेशानी न हो। पता नहीं था ये काम इतना मुश्किल होगा। हॉस्टल का छोटा सा कमरा। सबसे पहले आलमारी खोली। कितने कपड़े ऐसे निकले जिन्हें सिर्फ एक आध बार ही पहनने का मौका मिला। बेड के नीचे रखे दो बैग निकाले जिनपर धूल की मोटी परत जम चुकी थी। इतने में रैक की तरफ हाथ चले गए। ठंसी हुई किताबें कह रही थीं, कब तक हमें यहां से वहां घुमाते फिरोगे? कभी पन्ने भी पलटे जाएंगे? दूसरी मेज पर रखे नोट्स इसी इंतजार में पड़े रह गए कि उन पर भी हाईलाइटर चलेगा। बिस्तर पर पड़ी चादर का एक सिरा पकड़ा लगा जैसे किसी रूठे बच्चे के सिर पर हाथ फिरा रहा हूं। पूरे कमरे में सामान बिखरा है। मन पूरी तरह से उचाट हो चुका है। एक वक्त था जब काफी मटीरियलिस्टिक हुआ करता था। किसी भी चीज से दिल लगा बैठता था और फिर उसे छोड़ने का मन नहीं करता था। लेकिन इस शहर ने बहुत कुछ सिखाया। कभी किसी से इतना दिल नहीं लगाना चाहिए कि उसे छोड़ने पर तकलीफ हो। शहर ने बताया कि यहां कुछ भी अपना नहीं है। न कोई जगह, न कोई इंसान। इस कमरे को ही ले लीजिए। कभी ऐसा लगता था...
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