तारीखें बदल रहीं हैं सिर्फ...हम तो वहीं हैं अभी




अब नए साल में हम कोई रेजोल्यूशन नहीं लेते। पिछले ही इतने पेंडिंग पड़े हैं कि हिम्मत नहीं होती। थक गए हैं। ऐसा लगता है कि अब कुछ न सोचें। बस वक़्त जिस दिशा में हमें ले जा रहा है, उसी दिशा में चलते रहें। लेकिन एक भी दिन खराब जाता है तो कोफ्त होती है। सोचे थे कि ज़िन्दगी की सिल्वर जुबली तक कुछ तो हासिल कर ही लेंगे। अभी लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। क्या किया जाय! जानते सब हैं हम। मर्ज क्या है, दवा क्या है, इलाज कैसे किया जाय सब। बस थकान से ही नहीं उबर पा रहे। रोज़ उठते हैं तो सोचते हैं कि आज नई शुरुआत होगी, रात को बिस्तर पर जाते हैं तो लगता है कि दो साल से तो यही चल रहा है।


कितनी कसमें खाईं, कितने वादे तोड़े। कितने लोग मिले, कितने रिश्ते छोड़े। थकने की एक वजह शायद ये भी है।

कभी कभी एकदम से झुंझलाहट हो जाती है। दिल भर आता है। दिमाग की नसें तन जाती हैं और शरीर कांपने लगता है। किसी तरह खुद को संभालते हैं। तब अहसास होता है कि जो हुआ सो हुआ अब समय नहीं बर्बाद करना। लेकिन फिर हालत जस की तस हो जाती है।

कुछ नहीं पता क्या होगा। कहते हैं न कि मंज़िल को पाने का बस एक ही तरीका है, चलते रहो। पर हम तो रुक से गये हैं। देखते हैं, कब थकान से उबर के चलना शुरू करेंगे। आखिर वक़्त भी तो बहुत थोड़ा सा है।

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