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चाह

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ये जो हमारे तुम्हारे बीच की दूरी है इसे दिल की नजदीकियों का लिहाज नहीं है ये जो बिस्तर पर इधर से उधर करती शांत करवटें हैं इन्हें बेसुध होकर तुमसे बातें करने की खबर नहीं है मुर्दों की तरह पड़ा फोन उकता चुका है इंतजार में कमरे में बिखरी चीजें राह देख रही हैं तुम्हारे लौटने की किताबों पर बढ़ता जा रहा है धूल का बोझ दीवारें फिर से सुनना चाहती हैं मेरी हंसी रात का सन्नाटा तड़पता है फिर से गुलजार होने को खिड़की के शीशे देखना चाहते हैं वही मुस्कुराता हुआ चेहरा और मैं...और मैं हूं कि मुझे अब चाह ही नहीं रही किसी खुशी की... x