Posts

Showing posts from January, 2018

बेवजह मुस्कुराने की भी वजह होती है...

Image
तस्वीर से कहानी का कुछ वास्ता है पंख लगाए उड़ते इस वक्त में बेचैनी जैसी फोन के भीतर ही क़ैद होती है, मन कहीं होता, हम कुछ भी सोच रहे होते हैं और हाथ जेब में रखे फोन पर चला जाता है। उसके काले शीशे के भीतर लगी लाइटों को हम जलाते हैं और पता नहीं क्या करके वापस रख देते हैं। किसी को देखकर थोड़ा सुकून पाने की कोशिश कर रहे होते हैं। फोन वापस जैकेट की अंदर वाली जेब में जाता है और हाथ किसी लोहे जैसी चीज से टकराता है। ये छल्ले में लगी चाभी नहीं होती। ऐसी तो कोई चीज जेब में नहीं हो सकती। फिर क्या? मन संशय से भरने को ही होता है कि इतना सोचना नहीं पड़ता। उस चीज को बाहर निकालना भी नहीं पड़ता। होठों की मुस्कुराहट से दिल को मालूम हो जाता है कि दिल से थोड़ी दूर पर रखी ये चीज, दरअससल दिल से ही जुड़ी है। फोन में जिस चेहरे को देखकर दिल को सुकून देने की कोशिश कर रहे थे, वो सुकून इस झुमके को छूकर मिल गया। एक लड़के की जेब में झुमके! नहीं ये उसे देने के लिए नहीं, बल्कि उससे मांगे गए झुमके होते हैं। हां मांगे गए। पता नहीं उसे झुमके पसंद हैं या नहीं, लेकिन जब हम साथ में बैठे थे तो ये उसके कानों में

कहानी खत्म है, या शुरुआत...होने को है

Image
हमारी सबसे हसीन चाहतें, ख्वाहिशें अगर न पूरी हो पाएं तो क्या होगा? हम जिस मुकाम को हासिल करना चाहते हैं वो नहीं मिल पाया तो क्या होगा? हमारा प्यार अधूरा रह गया तो...! जिंदगी में इक्कीसवें पड़ाव के थोड़ा आगे बढ़ने पर अक्सर ऐसे न जाने कितने ख्याल हमारे जेहन में धीरे-धीरे अपनी मौजूदगी बनाने लगते हैं। सपने देखने की उम्र में कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि हमारे सपनों की दुनिया हकीकत में न बदल पाए। लेकिन जब असल दुनिया से वास्ता होता है और मुश्किल की बर्फीली बूंदें हमारे हसीन ख्वाब देखने वाली आंखों पर पड़ती है तो अचानक से हम कल्पनाओं की दुनिया से बाहर आ जाते हैं। उस वक्त हकीकत वाली जिंदगी बड़ी बेदर्द नजर आती है और हमें बेदम कर देती है। फिर हमें नहीं सूझता कि इस लम्हें में क्या कर बैठें। फिर समझ आता है कि उदासी क्या होती है। दिल भारी हो जाता है और बिस्तर पर लेटे दिन कट जाता है। मैं अक्सर इन लम्हातों से गुजरता हूं। खुद को इन सब मामलों में काफी मजबूत समझने के बाद भी उस वक्त नहीं सूझता कि इस लम्हे से बाहर कैसे निकला जाए। नहीं समझ आता कि आगे के पल हमसे का

फिर से प्रेम

Image
समझदारी वाली उम्र में पहुंच जाने के साथ तमाम जिम्मेदारियां हम पर आती जाती हैं। कुछ बन जाने की जिम्मेदारी, कुछ हासिल कर लेने की जिम्मेदारी, आगे बढ़ने की जिम्मेदारी और न जाने कैसी-कैसी जिम्मेदारियां। इन सबके साथ प्रेम को पा लेने या पूरा हो जाने की जिम्मेदारी भी होती है। बाकी तमाम चीजों के साथ हमारा आसपास का माहौल इसे हमारे ऊपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाद देता है। यानी कि अब आप रिस्क नहीं ले सकते। आपको प्रेम करने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। हर तरह से जांच परख लेना होता है। कुछ खांचे बना लेते हैं हम। उन्हीं में हमारा प्रेम सिमट कर रह जाता है। इन्हें हम बंधन भी कह सकते हैं। हम प्रेम में डूबने से बचने लगते हैं। शर्तें तय हो जाती हैं। ऐसा होगा तभी प्रेम करेंगे, वैसा होगा तो प्रेम नहीं करेंगे। क्या प्रेम को इस तरह से शर्तों में बांधना सही है? देखा जाए तो हम पहले से ही बंधे होते हैं। प्रेम ही वो चीज होती है जो तमाम बंधनों से हमें मुक्त कर देती है। हमें और हमारे ख्यालों को आजाद कर देती है। फिर हमें ये नहीं सोचना होता कि कितना प्रेम करना है, किससे प्रेम करना है और कैसे प्रेम करना