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झूठी मुस्कुराहटें

दुनिया की नज़र में जिनके पास सब कुछ होता है वे भी अक्सर दिल में खालीपन समेटे जीते रहते हैं। किसी के लिए 'सब-कुछ' उनके लिए 'कुछ नहीं' होता और जो सब कुछ होता है वो दुनिया के लिए कुछ नहीं होता। बेनाम से रिश्तों में बुने गए ख़्वाब टूटने के बाद उदासियों के नाम पूरी वसीयत लिखकर चले जाते हैं। ऐसे ही कुछ ख़्वाब कभी उसके लिए जीने का सबब हुआ करते थे, आज खुद से नाराज़गी की इकलौती वजह हैं। पहले बनाने की लाख कोशिश की थी तो कुछ हासिल नहीं हुआ, अब भुलाने कोशिश करके ख़ुद को ही दोहरा रहा हूं।  असल में हम भूलते कुछ नहीं हैं, बस यादों के धागों में बुने रिश्तों के मायने खत्म हो जाते हैं। लेकिन मायने खत्म होने के बाद भी अगर यादें वैसी की वैसी बनीं रहें तो! 

रातों का अकेलापन सिखाता बहुत है

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जुलाई का महीना बारिश के साथ नई कॉपी-किताबों की खुशबू भी लेकर आता है। कहने को ही सही अपनी भी पढ़ाई जारी है तो आज कॉलेज वापसी हो गई। दिन भर सामान यहां से वहां करने और उसे समेटकर हॉस्टल के रूम तक पहुंचाने में सुबह से शाम हो गई। और इस चक्कर में इतनी थकान लग गई कि लगा बिस्तर मिल जाए तो भरे बोरे की तरह शरीर को फेंक दूं। लेकिन सुबह से कुछ खाया नहीं था। पेट ने कहा कुछ खा लो नहीं तो तुम्हारी सुबह तक की गारंटी मैं नहीं ले सकता। मजबूरी थी सो खाना पड़ा। खाकर वापस रूम पर आया और कमरे की लाइटें बुझाकर बिस्तर पर लेट गया। थकान को देखते हुए मुझे तुंरत नींद आ जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आधे घंटे तक बिस्तर पर इधर से उधर करवटें बदलता रहा। चुपके से फोन की लाइट जलाई तो देखा घंटे बीतने को हैं। थोड़ी सी बेचैनी और बढ़ गई। मुझे पता था दिल में काफी कुछ भरा है, लेकिन जानबूझ कर वहां पहुंचना नहीं चाहता था। सोच रहा था बस किसी तरह रात गुजर जाए। लेकिन रात गहराती जा रही थी और हॉस्टल में चहल-पहल की आवाजें भी बंद हो चुकी थीं। थोड़ी सी उमस थी और मेरा गला भी सूख रहा था। बिस्तर से उठा और पानी की बोतल उठाकर बालकनी

यहां से भी विदा

दो दिन बाद इस जगह को भी छोड़ देना है। सोच रहा था अभी सारा सामान बांध लूं, ताकि आखिरी मौके पर परेशानी न हो। पता नहीं था ये काम इतना मुश्किल होगा। हॉस्टल का छोटा सा कमरा। सबसे पहले आलमारी खोली। कितने कपड़े ऐसे निकले जिन्हें सिर्फ एक आध बार ही पहनने का मौका मिला। बेड के नीचे रखे दो बैग निकाले जिनपर धूल की मोटी परत जम चुकी थी। इतने में रैक की तरफ हाथ चले गए। ठंसी हुई किताबें कह रही थीं, कब तक हमें यहां से वहां घुमाते फिरोगे? कभी पन्ने भी पलटे जाएंगे? दूसरी मेज पर रखे नोट्स इसी इंतजार में पड़े रह गए कि उन पर भी हाईलाइटर चलेगा। बिस्तर पर पड़ी चादर का एक सिरा पकड़ा लगा जैसे किसी रूठे बच्चे के सिर पर हाथ फिरा रहा हूं। पूरे कमरे में सामान बिखरा है। मन पूरी तरह से उचाट हो चुका है। एक वक्त था जब काफी मटीरियलिस्टिक हुआ करता था। किसी भी चीज से दिल लगा बैठता था और फिर उसे छोड़ने का मन नहीं करता था। लेकिन इस शहर ने बहुत कुछ सिखाया। कभी किसी से इतना दिल नहीं लगाना चाहिए कि उसे छोड़ने पर तकलीफ हो। शहर ने बताया कि यहां कुछ भी अपना नहीं है। न कोई जगह, न कोई इंसान। इस कमरे को ही ले लीजिए। कभी ऐसा लगता था

चाह

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ये जो हमारे तुम्हारे बीच की दूरी है इसे दिल की नजदीकियों का लिहाज नहीं है ये जो बिस्तर पर इधर से उधर करती शांत करवटें हैं इन्हें बेसुध होकर तुमसे बातें करने की खबर नहीं है मुर्दों की तरह पड़ा फोन उकता चुका है इंतजार में कमरे में बिखरी चीजें राह देख रही हैं तुम्हारे लौटने की किताबों पर बढ़ता जा रहा है धूल का बोझ दीवारें फिर से सुनना चाहती हैं मेरी हंसी रात का सन्नाटा तड़पता है फिर से गुलजार होने को खिड़की के शीशे देखना चाहते हैं वही मुस्कुराता हुआ चेहरा और मैं...और मैं हूं कि मुझे अब चाह ही नहीं रही किसी खुशी की... x

बेवजह मुस्कुराने की भी वजह होती है...

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तस्वीर से कहानी का कुछ वास्ता है पंख लगाए उड़ते इस वक्त में बेचैनी जैसी फोन के भीतर ही क़ैद होती है, मन कहीं होता, हम कुछ भी सोच रहे होते हैं और हाथ जेब में रखे फोन पर चला जाता है। उसके काले शीशे के भीतर लगी लाइटों को हम जलाते हैं और पता नहीं क्या करके वापस रख देते हैं। किसी को देखकर थोड़ा सुकून पाने की कोशिश कर रहे होते हैं। फोन वापस जैकेट की अंदर वाली जेब में जाता है और हाथ किसी लोहे जैसी चीज से टकराता है। ये छल्ले में लगी चाभी नहीं होती। ऐसी तो कोई चीज जेब में नहीं हो सकती। फिर क्या? मन संशय से भरने को ही होता है कि इतना सोचना नहीं पड़ता। उस चीज को बाहर निकालना भी नहीं पड़ता। होठों की मुस्कुराहट से दिल को मालूम हो जाता है कि दिल से थोड़ी दूर पर रखी ये चीज, दरअससल दिल से ही जुड़ी है। फोन में जिस चेहरे को देखकर दिल को सुकून देने की कोशिश कर रहे थे, वो सुकून इस झुमके को छूकर मिल गया। एक लड़के की जेब में झुमके! नहीं ये उसे देने के लिए नहीं, बल्कि उससे मांगे गए झुमके होते हैं। हां मांगे गए। पता नहीं उसे झुमके पसंद हैं या नहीं, लेकिन जब हम साथ में बैठे थे तो ये उसके कानों में

कहानी खत्म है, या शुरुआत...होने को है

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हमारी सबसे हसीन चाहतें, ख्वाहिशें अगर न पूरी हो पाएं तो क्या होगा? हम जिस मुकाम को हासिल करना चाहते हैं वो नहीं मिल पाया तो क्या होगा? हमारा प्यार अधूरा रह गया तो...! जिंदगी में इक्कीसवें पड़ाव के थोड़ा आगे बढ़ने पर अक्सर ऐसे न जाने कितने ख्याल हमारे जेहन में धीरे-धीरे अपनी मौजूदगी बनाने लगते हैं। सपने देखने की उम्र में कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि हमारे सपनों की दुनिया हकीकत में न बदल पाए। लेकिन जब असल दुनिया से वास्ता होता है और मुश्किल की बर्फीली बूंदें हमारे हसीन ख्वाब देखने वाली आंखों पर पड़ती है तो अचानक से हम कल्पनाओं की दुनिया से बाहर आ जाते हैं। उस वक्त हकीकत वाली जिंदगी बड़ी बेदर्द नजर आती है और हमें बेदम कर देती है। फिर हमें नहीं सूझता कि इस लम्हें में क्या कर बैठें। फिर समझ आता है कि उदासी क्या होती है। दिल भारी हो जाता है और बिस्तर पर लेटे दिन कट जाता है। मैं अक्सर इन लम्हातों से गुजरता हूं। खुद को इन सब मामलों में काफी मजबूत समझने के बाद भी उस वक्त नहीं सूझता कि इस लम्हे से बाहर कैसे निकला जाए। नहीं समझ आता कि आगे के पल हमसे का

फिर से प्रेम

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समझदारी वाली उम्र में पहुंच जाने के साथ तमाम जिम्मेदारियां हम पर आती जाती हैं। कुछ बन जाने की जिम्मेदारी, कुछ हासिल कर लेने की जिम्मेदारी, आगे बढ़ने की जिम्मेदारी और न जाने कैसी-कैसी जिम्मेदारियां। इन सबके साथ प्रेम को पा लेने या पूरा हो जाने की जिम्मेदारी भी होती है। बाकी तमाम चीजों के साथ हमारा आसपास का माहौल इसे हमारे ऊपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाद देता है। यानी कि अब आप रिस्क नहीं ले सकते। आपको प्रेम करने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। हर तरह से जांच परख लेना होता है। कुछ खांचे बना लेते हैं हम। उन्हीं में हमारा प्रेम सिमट कर रह जाता है। इन्हें हम बंधन भी कह सकते हैं। हम प्रेम में डूबने से बचने लगते हैं। शर्तें तय हो जाती हैं। ऐसा होगा तभी प्रेम करेंगे, वैसा होगा तो प्रेम नहीं करेंगे। क्या प्रेम को इस तरह से शर्तों में बांधना सही है? देखा जाए तो हम पहले से ही बंधे होते हैं। प्रेम ही वो चीज होती है जो तमाम बंधनों से हमें मुक्त कर देती है। हमें और हमारे ख्यालों को आजाद कर देती है। फिर हमें ये नहीं सोचना होता कि कितना प्रेम करना है, किससे प्रेम करना है और कैसे प्रेम करना