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if you are ashamed of anything?

You start feeling yourself despised by yourself, you start feeling yourself unworthy, you start feeling yourself not as you should be. Something inside you becomes hard, something closes inside you. You are no more as flowing as you have been before. Something has become solid, frozen; that hurts, brings pain, and brings a feeling of unworthiness. And whenever you feel unworthy you feel cut off from the flow of life. How can you flow with people when you are hiding something? Flow is possible only when you expose yourself, when you are available, totally available. If we do something we are ashamed of, it registers to our discredit. And if we do something good, it registers to our credit. You can watch it, you can observe it.

ऑफिस वाली जिंदगी

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ऑफिस के डेली रूटीन में बंध जाने पर आप बहुत देर तक एक ही मूड में नहीं रह सकते हैं। आप जैसे ही उदासी के भंवर में गोते लगाने उतरने को होते ही हैं कि ऑफिस जाने का वक्त हो जाता है। आप किसी बात पर बहुत खुश होते हैं लेकिन उस खुशी को संभालना पड़ता है, क्योंकि ऑफिस के लिए निकलना होता है। ऑफिस का भी एक अलग मूड होता है। क्योंकि आपको मालूम होता है कि ज्यादा खुशी या बहुत गम में आप काम नहीं कर सकते। ऑफिस आपको बैलेंस लाइफ जीना सिखा देता है। आप चाहकर भी भटक नहीं सकते। बहुत देर तक खुद को दुख नहीं रख सकते। बहुत खुशी को संभालना सीख जाते हैं, दुख से जल्द वापस लौटना सीख जाते हैं...

क्या होता है जब...

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क्या होता है जब कोई हमें छोड़कर चला जाता है... मिलना-बिछड़ना, पाना-खोना, टूटना-बिखरना तो हमारी जिंदगी का हिस्सा है। हम जानते हैं कि जो कुछ भी आज हमारे पास है वो कल नहीं रहेगा। सब कुछ कभी न कभी तो खत्म हो जाएगा। रिश्ते-नाते, लोग बाग सबकुछ। यहां तक कि हमें भी एक दिन खत्म ही हो जाना है, फिर ये रिश्ता भला क्या चीज है। मैं प्यार की बात कर रहा हूं। एक इनसान जो हमें छोड़कर जा चुका है। हम उसकी यादों में पल-पल मर रहे हैं। कुछ अच्छा नहीं लग रहा। हर सांस एक बोझ लग रही है। कदम आगे नहीं बढ़ रहे। कुछ सूझ नहीं रहा। ऐसे लग रहा जैसे कि जिंदगी ठहर गई है। वही जिंदगी जो कुछ दिनों पहले बड़ी तेजी से न जाने कितने ख्वाब संजोए भाग रही थी। जिंदगी तो अब भी है, लेकिन अब हालात बिलकुल बदल गए हैं। लग रहा है कि जीने की उम्मीद ही खत्म हो गई। कुछ छूटने पर तकलीफ होना लाजिमी है। सब कुछ जानते हुए भी खुद को समझाना इतना मुश्किल क्यों हो जाता है? जिंदगी में अगर खोने-पाने का हिसाब करने बैठूं तो न जाने कितना वक्त उन अफसानों को सोचने में गुजर जाएगा जो अधूरे रह गए। हकीकत में अधूरी हसरतों का बोझ इतना ज्यादा होता है कि...

काठगोदाम से नैनीताल

इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए क्लिक करेें... हमारी कार में पीछे एक नवयुगल शायज नवदंपत्ति थे और बुढ़िया मां बैठी थीं। जो पीछे युवक बैठा था उसे रास्ते में उल्टियां होने लगीं तो कार वाले ने दो तीन बार रोका। घंटे भर बाद हम नैनीताल में थे। जब सब कार से उतर गए तो ड्राइवर ने मुझसे कहा आपको कहां जाना है, मैंने कहा, नैनीताल आ गया। उसने कहा- हां। मैं अच्छा कहते हुए कार से उतर गया। उतरते ही बहुत तेज ठंड हवा का झोंका मुझे छूकर गया। मन प्रसन्न हो गया, लेकिन थोड़ी ही देर में मैं कांपने लगा। मेरे पास सिर्फ एक हूडी थी। और वह मुझे नैनीताल की ठंड से बचाने के लिए नाकाफी थी। दो चार कदम चलने पर माल रोड था। वहीं पर एक चाय-सिगरेट की दुकान दिखी। मसाला मस्त चाय ऑर्डर की। किसी तरह खत्म की। सुबह हो गई थी, लेकिन सूरज का निकलना बाकी था। तब तक वहीं बैठकर और चाय पीता रहा और गूगल पर देखता रहा कि कहां-कहां घूमा जा सकता है। जब पहले से कुछ खास प्लानिंग न हो तो सोलो ट्रेवलिंग में यही होता है। आपको एंड मौके पर डिसाइड करना होता है कि जाना कहां है।  मैंने कुछ जगहें देखीं और फिर फ्रेश होने के लिए इंतजाम तला...

दिल्ली से नैनीताल

वैसे तो मैं छोटी-बड़ी कई यात्राएं कर चुका हूं, लेकिन अभी तक किसी भी सफर का लेखा-जोखा यानी सफरनााम नहीं लिख पाया। उसका कोई और नहीं सिर्फ एक ही कारण है, आलस। आलस वो बला है जिसके सामने बड़ी-बड़ी हसरतें दम तोड़ देती हैं। तो इस बार यानी नैनीताल यात्रा के बाद सोचा है कुछ लिखना पड़ेगा। घूमने का शौक मुझे बहुत है जैसे हर किसी का होता है। पिछली बार कश्मीर गया था। उसके बाद छह महीने हो गए कहीं जाने का मौका नहीं मिला। मौका क्या, दरअसल नौकरी और ऑफिस से कहीं जाने का प्लान ही नहीं बना पाया। वैसे सच कहा जाए अगर आप कुछ ज्यादा ही प्लानिंग के चक्कर में रहते हों तो बड़े मुश्किल से घूम पाएंगे। इस बार ऑफिस से काफी पहले ही छुट्टी अप्रूव करवा ली थी। सोचा था कि अमित और मैं उत्तराखंड में कहीं घूमने जाएंगे, लेकिन बीच में पारीक ने स्कूटर से गिरा दिया। चोट को देखते हुए अमित से बोलना पड़ा कि कहीं ट्रिप-विप नहीं हो पाएगी। तो उसने अपनी छुट्टी कैंसल करा दी। जब मेरी छुट्टी की तारीख नजदीक आने लगी तो चोट बिलकुल ठीक हो चुकी थी, लेकिन अमित ने जाने से मना कर दिया, बोला कि अब मैं अचानक छुट्टी नहीं ले सकता। मतलब अब मेरा अके...

ये दिन भी गुजर गया...

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HJ-2015-16 हम तो सोच रहे थे कि फरवरी तक कॉन्वोकेशन होगा। चाहते भी यही थे कि जितना बाद में हो उतना अच्छा है। लेकिन अब हमारे चाहने से सब होता कहां है। जब से पता चला इस दिन के इंतजार में खुश हो रहा था लेकिन वैसी बेचैनी नहीं थी। जैसे अक्सर आईआईएमसी के नाम पर होती थी। जितनी खुशी सबके एकसाथ मिलने पर हो रही थी उससे ज्यादा दुख बिछड़ने के बारे में सोचने पर हो रहा था। इस मौके को थोड़ा सा यादगार बनाना चाहता था और थोड़ी देर तक साथ रुकने का बहाना भी चाहिए था इसलिए डीजे का प्लान किया था। लेकिन उसे बजवाने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ी उसके बारे में बताना मुश्किल है। इसी के चक्कर में सबसे ठीक से मिल नहीं पाया। कई लोगों के साथ फोटो खिंचवानी थी वो भी नहीं हो पाया , एक अप्लीकेशन लिए कभी इस केबिन में कभी उस केबिन के चक्कर काटते रह गया और आखिर में जब काफी गिड़गिड़ाने के बाद परमिशन मिली तो काफी लेग निकल चुके थे , वक्त की तरह। मैं ' ऊपर ' के किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिखना चाहता लेकिन आज तक मैंने इतनी छोटी सी चीज के लिए इतनी भगदौड़ नहीं की। खैर मुझे उसके बारे में अब कुछ नहीं कहना है। बस आईआईएमसी ...

एक है सुमेरा...

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सुमेरा उस वक्त के संघी और   IIMC   के पहले साथी रवि पारीक के साथ फेसबुक पर बहस हो रही थी। बीच में ये भी मजे ले रहा था। मुझे नहीं पता था ये भी IIMC का ही नमूना है। पता नहीं कब लिस्ट में आ गया था। खैर हम दिल्ली पहुंचे। साथ में रहने के बारे में कुछ बात हुई थी लेकिन बात बन नहीं पाई।ये विष्णु भैया के साथ रहने लगा।IIMC शुरू होने के एक दो दिन पहले देर शाम इनबॉक्स में एक मैसेज आया, गंगा ढाबा आ सकते हो क्या? समय था लेकिन काम का बहाना बनाकर मना कर दिया। पहले दिन क्लास में मिले। रवि की तरफ इशारा करते हुए इसने कहा कि अपने दोस्त से मिल लो और हंसने लगा। वो बहस इसको याद थी। ज्यादा किसी से पहचान नहीं हुई थी लेकिन जब बातचीत शुरू हुई तो पता चला जिनको ये जानता है उन्हें मैं भी अच्छे से जानता हूं। जे भैया को अच्छे से जानता था। उनको एडमायर करता था। इसी बहाने और भी बातें होतीं। चेहरे पर घनी दाढ़ी, कंधे पर झोला लटकाए, माइनस चेचिस की शरीर लिए डरा सहमा एकदम पीछे हमारे साथ ही बैठता था। छुट्टी होने के बाद मुझे कटवारिया जाना होता लेकिन  इसे छोड़ने के बहाने बहाने पूर्वांचल निकल जाता था।...

पंचायत चुनावों की जातिगत राजनीति और उसके ख़तरे

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पम्फ्लेट्स पर जाति का विशेष तौर पर उल्लेख समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है। देश में तरक्की और विकास की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। लेकिन आज भी जाति जैसी गंभीर समस्या का कोई हल नज़र नहीं आ रहा। हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में इसका असर साफ़ देखने को मिला। जहाँ उम्मीदवार प्रचार करने के लिए पोस्टरों और बैनरों पर विशेष तौर पर अपनी जाति का उल्लेख करके अपनी बिरादरी के वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश हुए नज़र आये। पंचायत चुनावों में धनबल का प्रयोग तो होता ही है। लेकिन जाति को भी चुनाव जीतने का महत्वपूर्ण हथियार माना जाता है। वोटरों को साड़ी से लेकर शराब का वितरण धड़ल्ले से किया जाता है। एक समय हमारे पारंपरिक समाज में सिर्फ उच्च जाति के लोग ही नाम के आगे जाति लिखकर शक्ति,सम्मान हासिल करने की कोशिश करते थे। लेकिन अब तथाकथित नीची जाति के लोग भी नाम के आगे जाति लिखकर अपने उन्हीं की राह पर चल पड़े हैं। खास बात तो यह है कि जिन उम्मीदवारों के अधिकारिक नाम के आगे उनकी जाति नहीं लिखी होती है वे भी अपनी जाति का ज़िक्र ख़ास तौर पर पोस्टर और पम्प्लेट्स पर करते हैं। कुछ लोग नाम के आगे सम्मानजनक टाइ...
सितम्बर के महीने में मैंने एक स्टेटस  लिखा था ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया में भेजी गयी। फिल्मों के विषय पर। सूची में गीतू मोहनदास की लायर्स डायस,शाहिद,मर्दानी,क्वीन,मैरीकॉम,यंगिस्तान और टू स्टेट्स जैसी फ़िल्में थीं।हालांकि मैंने उस स्टेटस को हटा दिया था क्योंकि फिल्म के निर्देशक अपनी फ्रेंडलिस्ट में हैं। ख़ैर आज कई लोगों को इस पर बात करते हुए देखा कि यंगिस्तान फिल्म के ऑस्कर नॉमिनेशन के लिए भेजा गया है। कई लोग पूर्ण जानकारी के आभाव में भ्रमित हैं। दरअसल ऑस्कर में 'बेस्ट फ़ॉरेन लैंग्वेज फिल्म केटेगरी के लिए भारत की तरफ से अधिकारिक रूप से जिस फिल्म को चुना गया है वो गीतू मोहनदास की निर्देशित फिल्म 'लायर्स डाइस' है।जिसमे  मुख्य भूमिका में नवजुद्दीन और गीतांजलि थापा। हैं। यंगिस्तान को इंडिपेंडेंट रूप से भेजा गया है। ख़ैर अब बात करते हैं ऑस्कर अवार्ड के लिए भारतीय फिल्मों की स्थिति पर। भारत में प्रत्येक वर्ष तकरीबन 35 भाषाओँ में 1500 फ़िल्में बनती हैं। इस वर्ष 37 भाषाओँ में कुल 1778 फ़िल्में सर्टिफिकेशन के लिए आयीं।जो कि पूरी दुनिया में बनने वाली कुल फिल्मों...

आगरा मथुरा यात्रा

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फरवरी में 23  को ताजमहल और 24 को स्वामी बालेन्दु जी से मिलने मथुरा (वृन्दावन) जाने का प्लान बनाया। 'मथुरा' वृन्दावन, स्वामी जी से मिलने वो भी मुझ जैसा नास्तिक। दरअसल स्वामी बालेन्दु जी कोई बाबा वाले स्वामी नहीं हैं, हालांकि वह पहले धार्मिक बाबा ही थे लेकिन अब घोर नास्तिक हो गए हैं। मैंने उन्एहें पहले ही बता दिया था कि मथुरा आगरा के बाद मथुरा आउंगा। लेकन दिन भर आगरा घूमने के बाद सोचा कि यदि आज ही मथुरा निकल लिया जाए तो अच्छा रहेगा। हालांकि मैंने बालेंदु जी से अगले दिन आने को कहा था इसलिए एक बार पूछना जरूरी समझा। मैंने पूछा कि रात तक पहुंचने  पर कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगी। उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं आ जाओ मैंने आगरा कैंट स्टेशन से मथुरा जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। करीब एक घंटे पश्चात रात्रि 7 बजे मैं मथुरा जंक्शन स्टेशन पर था। मथुरा स्टेशन से बाहर निकलने पर वृन्दावन की और जाने वाले ऑटो पर बैठ गया। करीब आधे घंटे के सफर के बाद मैं परिक्रमा मार्ग पर था। वहां पर पूछते-पूछते मैं स्वामी बालेन्दु जी के आश्रम के पास पहुँच गया, आश्रम के गेट पर गार्ड ने रोक कर आने का कारण पूछा तो मैं...