फिर से प्रेम


समझदारी वाली उम्र में पहुंच जाने के साथ तमाम जिम्मेदारियां हम पर आती जाती हैं। कुछ बन जाने की जिम्मेदारी, कुछ हासिल कर लेने की जिम्मेदारी, आगे बढ़ने की जिम्मेदारी और न जाने कैसी-कैसी जिम्मेदारियां। इन सबके साथ प्रेम को पा लेने या पूरा हो जाने की जिम्मेदारी भी होती है। बाकी तमाम चीजों के साथ हमारा आसपास का माहौल इसे हमारे ऊपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाद देता है। यानी कि अब आप रिस्क नहीं ले सकते। आपको प्रेम करने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। हर तरह से जांच परख लेना होता है। कुछ खांचे बना लेते हैं हम। उन्हीं में हमारा प्रेम सिमट कर रह जाता है। इन्हें हम बंधन भी कह सकते हैं। हम प्रेम में डूबने से बचने लगते हैं। शर्तें तय हो जाती हैं। ऐसा होगा तभी प्रेम करेंगे, वैसा होगा तो प्रेम नहीं करेंगे।

क्या प्रेम को इस तरह से शर्तों में बांधना सही है? देखा जाए तो हम पहले से ही बंधे होते हैं। प्रेम ही वो चीज होती है जो तमाम बंधनों से हमें मुक्त कर देती है। हमें और हमारे ख्यालों को आजाद कर देती है। फिर हमें ये नहीं सोचना होता कि कितना प्रेम करना है, किससे प्रेम करना है और कैसे प्रेम करना है। तभी तो हमारे भीतर सपने पलने लग जाते हैं। हम ख्वाब बुनने लग जाते हैं। निडर हो जाते हैं। दुनियादारी से बेखबर हो जाते हैं। लेकिन जिम्मेदारियां साथ आ जाने पर क्या होता है। हम शुरुआत करने से डरते हैं, शुरुआत हो गई तो फिर उसके साथ चलने में डरते हैं और तो और कल क्या होगा इस ख्याल से भी डरने लग जाते हैं।

जबकि पहले तो ऐसा नहीं था। हमने कभी सोचा ही नहीं था कि कल क्या होगा। यही तो वजह थी हमारे डूब कर प्रेम करने की। आज ऐसा लगा कि डूबने में भय लग रहा है। ये भय एक बार फिर से असफल हो जाने का भय है। इससे हम असहज हो रहे हैं। लेकिन जहां असहजता होगी वहां प्रेम कहां रह पाएगा। असहज व्यक्ति प्रेमिका का हाथ कैसे पकड़ पाएगा, उसे कैसे चूम पाएगा।

अंतर्द्वंदों से जूझते ये ख्याल हमें सहज कर देते हैं, हमारे अंदर प्रेम की अगन भर देते हैं और एक बार फिर से किसी के प्रेम में पड़ जाने को कहते हैं। क्योंकि प्रेम में हर पल रोमांच होना जरूरी होता है। चाहे वो अधूरा हो या पूरा। सब कुछ सेटल हो जाने के बाद प्रेम की तलाश करना प्रेम नहीं भ्रम है।

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